गुरुवार, 12 नवंबर 2009

अबू आज़मी की मनसे "नौटंकी"


पिछले दिनो महाराष्ट्र की विधानसभा में जो नौटंकी हुई उसने कइयों के होश हिला कर रख दिए , वैसे मनसे के उम्मीदवारों और अबू आज़मी के समर्थकों के महाराष्ट्र में चुना जाना ऐसा था जैसे बिल्ली के भाग्य से छींका फूटना. जिस दिन विधानसभा चुनावों के परिणाम आए तब ही लोगों में उत्सुकता थी की अबू आज़मी साहब और मनसे विधानसभा में क्या गुल खिलाएँगे.
कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस के सरकार बनाने के ढुलमुल रवैये से सरकार बनने में करीब १५ दिन देरी हुई और बड़ा संवैधानिक संकट खड़ा हो गया जाहिर है कांग्रेस को लोगों का ध्यान मुद्दों से हटा कर कोई नाटक तो करना ही था, इसी नौटंकी में शरीक हुई कांग्रेस की कभी उत्तर प्रदेश में सहयोगी रही समाजवादी पार्टी और महाराष्ट्र में कांग्रेस द्वारा पोषित एम एन एस.

साल २००७-०८ के आखरी दिनो में जो छठ पूजा का विरोध और राज ठाकरे, अमर सिंह , आज़मी , लालू , मुलायम में बयानबाज़ी हुई यह एक सोची समझी प्लॅनिंग थी. महाराष्ट्र में भाजपा शिवसेना के वोट काटना और कांग्रेसनित गठबंधन को मजबूत करना यही इसका मकसद था. भाषाई विवाद या आम जनता से इसका कोई लेना देना न था , खुद कांग्रेस कई दफे पर्दे के पीछे से मनसे को समर्थन देती नज़र आई. जिस कांग्रेस ने गोपाल कृष्ण गोखले , सावरकर और बाल गंगाधर तिलक जैसे तेजस्वी नेताओं को नज़रअंदाज़ किया , महाराष्ट्र राज्य की स्थापना में तमाम अड़ंगे लगाए गाँधी की हत्या के बाद हज़ारों मराठी लोगों के मकान दुकान जलाए आज वही कांग्रेसी दोगला खेल खेल रहे हैं.

अपने जीवन काल में कांग्रेस के भूतपूर्व अध्यक्ष स्व. सीताराम केसरी कह चुके हैं कि मराठा मानुष कभी केंद्र में प्रधानमंत्री नहीं बन सकता , क्यूंकी आपस में मराठी व्यक्ति केकड़े की भाँति एक दूसरे के टाँग खींचते रहते हैं और कभी एकता नहीं दिखाते. कुछ हद तक यह बात सही है , लेकिन दुर्भाग्यवश केसरी जी प्रधानमंत्री बनने का अरमान अपने दिल ही में रखते हुए राम को प्यारे हो गये.

बात का रुख़ दोबारा मनसे और अबू आज़मी की तरफ ले आते हैं , शिसवेना के सामना अख़बार में लिखा था की मनसे और सपा के बीच नूरा कुश्ती चल रही है , दोनो ने विधानसभा को नाटकसभा में बनाने की कोई कसर नही छोड़ी है . हाई वोल्टेज ड्रामा खेल कर लोगों की भावनाएँ भड़का कर मीडीया में फुटेज लेते हुए अपना ब्रांड बना रहे हैं यह नामुराद नेता.

क़ानूनन कोई व्यक्ति या पार्टी किसी को बता नही सकती की उसे किस भाषा में बोलना चाहिए , लेकिन दूसरे राज्यों में रहने वाले को इतनी समझ होनी चाहिए कि जब आप किसी राज्य में २५ साल रहकर वहाँ की भाषा बोल नही पाते तो उनके नेता कैसे बन सकते हैं? अबू आज़मी के कथित तौर से हिन्दी में शपथ लेने से तो मराठी का अपमान हुआ और ही हिन्दी का सम्मान लेकिन बखेड़ा ज़रूर खड़ा हो गया !!!
अख़बारों में लिखे गए घटनाक्रम के अनुसार मनसे के रमेश वांजले और शिशिर शिंदे इन नेताओं ने अबू आज़मी के साथ हाथापाई की और एक झापड़ रसीद दिया , इसके बाद आज़मी साहब ने खूब बयानबाज़ी की मनसे को बुरा भला कहा. जब एक संवाददाता ने उनसे बाला साहब ठाकरे के बारे में पूछा तो उनके बारे में बेहद गैर ज़िम्मेदाराना बात आज़मी ने कही.

सोचने वाली बात यह है कि आज़मी किस हैसियत से ऐसी बयानबाज़ी कर रहे थे? पाठकों को याद दिला दूं सन २००४-०५ में स्टार न्यूज़ ने माफ़िया सरगना दाऊद इब्राहिम के भाई मुस्तक़िम की शादी का वीडीयो जारी किया था जहाँ सपा के प्रदेश अध्यक्ष अबू आज़मी साहब चहकते हुए दाऊद से हाथ मिला रहे थे और शादी में ठुमके लगा रहे थे. बाद में जब स्टार न्यूज़ के प्रतिनिधि ने इनसे फ़ोन पर बात की तो ऑन द रेकॉर्ड यह बात कुबूली की वे शादी में मौजूद थे और दाऊद को अच्छी तरह जानते हैं , उन्होने यह भी दोहराया की शादी में शरीक होना गुनाह नही है और आगे भी वे ऐसी शादियों में शामिल होते रहेंगे. बात साफ है कि आज़मी दाऊद के बूते इतना उछल रहे हैं.

आइए इन्हीं अबू आज़मी साहब के अतीत के बारे में कुछ जानते हैं

१. हिन्दी भाषियों के 'सपाई' तारणहार अबू आज़मी साहब के बारे में ९ नवंबर १९९७ के द एशियन एज में खबर लिखी है कि तत्कालीन मुंबई पोलीस कमिशनररोनाल्ड मेंडोसाने हाइ कोर्ट में दिए एफाइडेविटमें आज़मी साहब के दाऊद इब्राहिम से संबंधो के बारे में खुल कर कहा है। पूरी खबर पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें

http://www.hvk.org/articles/1197/0045.html





२. यही आज़मी साहब बीते आम चुनावों में रिश्वतखोर मतदाताओं को पैसे बाँटते हुए चुनाव आयोग के हत्थे चढ़ गये. पूरी खबर पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें.

http://www.indianexpress.com/news/abu-azmi-under-ec-scanner-for-cash-distribu/443729/



तो यह वजह है मुंबई और महाराष्ट्र के लोगों के आज़मी को तमाचा पड़ने पर खुश होने की . वो भली भाँति जानते हैं की आज़मी साहब किस खेत की मूली हैं , ९३ के दंगों में भी आज़मी साहब पर सवाल उठतेरहे हैं यह बात अलग है की सबूतों के अभाव में इनको बरी किया गया.

इन्ही मामलों से अपनी जान छुड़ाने के लिए आज़मी साहब ने यह नाटक रचा अरेबिक स्क्रिप्ट में लिखी हिन्दी शपथ पढ़ के मनसे वालों का थप्पड़ खा कर वे सस्ते में हीरो बन गए। इन्हीं आज़मी साहब के वालिद के बारे में कहा जाता है की उन्होने उत्तरप्रदेश में हिन्दी के खिलाफ उर्दू का समर्थन करते हुए आंदोलन किया था , अचानक इसी बाप के बेटे में हिन्दी के प्रति प्रेम कैसे जाग्रत हुआ? सब वोटों की राजनीति है आज़मी की नज़र महाराष्ट्र में बसे हिन्दी भाषियों के वोट पर नज़र है वहीं राज ठाकरे की मराठी वोटों पर। इन सबमें ज़रूरी मुद्दे दब गए हैं.

यह महज़ संयोग नहीं कि उत्तरप्रदेश में बर्बादी के कगार पर खड़ी सपा का नेता इस हालिया विवाद में पड़ा हो आमतौर पर समझदार नेता विवादों से दूर ही रहते हैं लेकिन आज़मी जैसे चालाक नेता विवादों से अपनी मार्केट वॅल्यू बनाते हैं , जानबूझ कर उन्होने बार बार यह ऐलान किया की वे हिन्दी में शपथ लेने वाले हैं , इधर मनसे वालों ने भी गुब्बारे को फुलाए रखने में कोई कसर छोड़ी , झूठी भाषाई अस्मिता के ज़रिए लोगों की भावनाएँ भड़का कर मनसे वालों ने चुनावों में सफलता हासिल की. यह जाहिर था की पहली बार चुन कर आए मनसे के विधायकों के पास कहने सुनने और करने के लिए कुछ खास नहीं था इसलिए अपनी मौजूदगी दर्ज़ करने के लिए सोची समझी साज़िश के तहत आज़मी से उलझ पड़े.

यक़ीनन यह पूरा नाटक मनसे और सपा द्वारा पोलिटिकल माइलएज हासिल करने के लिए खेला गया है.

आज महाराष्ट्र के मुंबई , थाणे ,पूना नासिक , नागपुर , औरंगाबाद , कोल्हापुर जैसे शहरों में ६-७ घंटे बिजली काटी जाती है , पानी सप्लाई में कटौती होती है , ज़रा सी बारिश में सड़कें स्वीमिंग पूल में तब्दील हो जाती हैं , गटर ओवरफ्लो हो कर बहने लगते हैं. फिर उचित साफ सफाई के अभाव में डेंगू , चिकुनगुनिया , मलेरिया और स्वाइन फ़्लू जैसी महामारियाँ फैलतीं हैं , दवाइयाँ नही होतीं और तिस पर लोग मरते हैं , लेकिन इतना होने पर भी सरकार को जवाबदेहि की चिंता नही होती , क्यूंकी बेवकूफ़ मतदाता ज़रूरी मुद्दों को छोड़ भाषाई अस्मिता के जंजाल में जकड़े हुए हैं. इन बेवकूफ़ मतदाताओं में यक़ीनन ज़्यादा तादात उन हिंदुओं की है जिनका सरकार द्वारा हिंदुओं को आतंकी ठहराए जाने पर खून नहीं खौलता , देवी देवताओं की अपमानजनक तस्वीरें बनाए जानेवालों के खिलाफ कहने के लिए मुँह नहीं चलता . सच है भारत की अधिकतर जनता आज भी कांग्रेस गाँधी नेहरू की मानसिक गुलामी में जी रही है , ऐसे आज़ाद भारत से तो ब्रिटिश राज अच्छा था कम से कम अराजकता या अंधेर तो न मची थी.

प्रांतवाद और क्षेत्रवाद समाज में जातिवाद से कहीं ज़्यादा ख़तरनाक है लेकिन . की बात यह है की . लोगों को जनता चुनती है , शायद जनता की ग़लती की यही सज़ा है कि ४ सालों तक उसके चुने हुए नेताओं को विधानसभा से निकाला गया है.

सोमवार, 21 सितंबर 2009

राहुल गाँधी , कांग्रेस और मीडीया की चिल्ला-पुकार .

पिछले दिनो आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री की हवाई हादसे में मौत के बाद से कईं राजनेताओं के पाँव ज़मीन पर आ टिके हैं . सपा की रामपुर से सांसद और बीते जमाने की अभिनेत्री जयाप्रदा तो अपने क्षेत्र के बाढ़ प्रभावित इलाक़ों का दौरा करने बैलगाड़ी में बैठीं यह बात अलग है की उनके आँसू बाढ़ पीड़ितों की बदहाली देख कर नही बल्कि बैलगाड़ी में लगे झटकों से निकल रहे थे.







पूरी खबर यहाँ पढ़ें :

http://www.deccanherald.com/content/25227/bullock-cart-ride-leaves-jaya.html

वैसे सादगी का प्रचार कर लोगों की हमदर्दी लूटने में देश की सबसे पुरानी और "धर्म निरपेक्षता" के लिए मशहूर और गाँधी परिवार की बपौती कांग्रेस पार्टी का कोई सानी नहीं. पार्टी के युवराज और देश के "भावी प्रधानमंत्री" राहुल गाँधी पिछले दीनो पंजाब के दौरे पर थे , अब इसे मितव्ययता ही कहिए या हवाई दुर्घटना का डर , कांग्रेस के राजकुमार बजाए विमान में बैठने के देश की सबसे आलीशान रेलगाड़ी में बैठे , और हम जैसे कईं युवाओं को फ़िज़ूलखर्ची न करने की सीख दे गए.



बात फ़िजूलखर्ची की होती तब भी ठीक था लेकिन यहाँ तो राहुल जी के दुर्घटना के डर से होश फाख्ता हो गए..... २-४ बच्चों ने खेतों से गुजरती शताब्दी एक्सप्रेस पर खेल खेल में पत्थर क्या मारा , राहुल जी की घिग्गी बँध गई और रेल अधिकारियों,पुलिस वालों की नाक कट गई.



खूब चीख पुकार मची , मीडीया पगला गया , चर्चा हुई , विचार विमर्श हुए कि नेताओं का बगैर पर्याप्त सुरक्षा के सफ़र करना उचित है या नहीं . कुछ बीते जमाने के बुढाए वफ़ादार कांग्रेसी चॅनल्स पर , एनक नाक पर टिकाए अपने "अनुभवी" विचार रखते नज़र आए और यह बताया की गाँधी परिवार के सदस्य कितने मिलनसार हैं और लोगों की तक़लीफें सुनने के लिए किसी भी प्रोटोकाल की परवाह नही करते वग़ैरह , वग़ैरह.



कुछ कांग्रेस द्वारा संचालित मीडीया वालों ने तो इतनी चिल्ला पुकार मचाई की मानो इस से पहले किसी भी ट्रेन पर पत्थर पड़े ही न हों . कुछ कांग्रेस भक्त पत्रकारों ने बाक़ायदा अपने अख़बारों में शताब्दी एक्सप्रेस पर पथराव होने की बात छापी .

कुछ वरिष्ठ कांग्रेसी दबी ज़ुबान में इस घटना का ज़िम्मेदार "विरोधी दलों" को बता रहे थे , जो पिछले आम चुनावों में मिली हार से कुंठित हैं. गोया इनको बच्चो की शरारत में भी राजनीति नज़र आती है? वाह साहब! वाह !!

पूरी खबर यहाँ पढ़ें :

http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/5018089.cms

इस घटना के कुछ ही दिन पूर्व जब आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री का देहांत हवाई हादसे में हुआ था तब इन्ही कांग्रेसियों ने बड़ी बेशर्मी से यह खबर फैलाई थी की २०० लोगों ने रेड्डी की मौत के शोक में आत्महत्या कर ली ..... भारतीय इतिहास में सहानुभूति भुनाने का इससे घटिया उदाहरण शायद ही लोगों ने देखा होगा .

वैसे कांग्रेस चुनाव मुद्दों पर नही बल्कि जनता की हमदर्दी लूट कर जीतती रही है , जब पंडित नेहरू सिधारे तो इंदिरा जी "बेचारी" बन कर जनता से वोट माँगी , १९७८-८० के दौरान इंदिरा जी को अकेला छोड़ कईं कांग्रेसी मौका लपक लिए तब वे एक बार फिर बेचारी बन गईं और सत्ता में वापस लौटीं.


सन ८४ में उनकी मौत के बाद राजीव गाँधी बेचारे बन गए और खूब वोट पाए. १९९१ से लेकर अब तलक सोनिया जी और राहुल गाँधी 'बेचारे' बने हुए हैं और हमारी जनता उनसे हमदर्दी जताने के लिए वोट दिए जा रही हैं. जाहिर है जनता की हमदर्दी पर जीने वालों को कभी कभार जंटस ए अपनी नज़दीकी दिखाने के लिए कभी कभार अपने पाँव ज़मीन पर टीकाने पड़ते हैं इसलिए रेल यात्राओं की नौटंकी करनी पड़ती है. खर्च में कटौती का दिखावा करने के लिए विदेश मंत्रियों को पाँच सितारा होटेल से मामूली लॉज में शिफ्ट होना पड़ता है. हम समझ सकते हैं की शशि थरूर इस बात से कितने परेशान होंगे की उनको अपनी जीवनशैली बदलना पड़ रही है , इसी बात से गुस्साए शशि जी ने मज़ाक में कह दिया इकॉनोमी क्लास , मवेशियों का क्लास है , यह कहने की देर थी की मानो गजब हो गया. कांग्रेस के वरिष्ठ मवेशी .... म..माफ़ करिएगा वरिष्ठ नेतागण भड़क गए और इस्तीफ़े की माँग कर डाली.














पूरी खबर यहाँ पढ़ें :

http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/5019173.cms

कांग्रेस के इस विवाद ने भी मीडीया कर्मियों के लिए अच्छा मसाला दे दिया. खैर, ट्रेन पर पत्थर पड़ने से ही सही , राहुल जी आम आदमी की मुश्किलों से रु-ब-रु तो हुए , यह सोचिए क्या होता यदि राहुल जी बजाए शताब्दी में सफ़र करने के किसी मामूली पॅसेंजर गाड़ी में जाते? कुछ हिजड़ों की टोली पैसे की उगाही करने उनके पास आती और राहुल जी उनकी समस्याएँ सुनने का दिखावा करते ,और शायद उनके साथ नाचते गाते. और हमारा बचकाना मीडीया बड़े ही भोंडे तरीके से हर बार की तरह इस बार भी राहुल गाँधी का गुणगान करेगा

शुक्रवार, 3 जुलाई 2009

कांग्रेस आई !! समलैंगिकता लाई !!!!


हैरान हो गये न शीर्षक पढ़ कर? यह तो होना ही था , किसी को विश्वास हो न हो मुझे पक्का यकीन था की कांग्रेस के सत्ता संभालते ही 150 साल पुराने "अँग्रेज़ी" क़ानून की धज्जियाँ उड़नी ही उड़नी हैं. जैसा मैने सोचा था वही हुआ भारत में समलैंगिकता को क़ानूनी मान्यता मिल गयी ! और जैसा अपेक्षित था सभी धर्मगुरुओं , मौलवियों , बिशपों ने एक स्वर में इस क़ानून का कड़ा विरोध जताया!

जैसा की मैने कहा कांग्रेस ने हाइ कोर्ट के मुँह से फ़ैसला बुलवा कर कर एक तीर से कईं निशाने मारे हैं पहला तो यह की तथाकथित रूढ़िवादी और पुराने विचार के लोगों के गुस्से से न्यायालय के निर्णय को ढाल बना कर खुद को बचा लिया और लगे हाथ समलिंगियों का समर्थन भी हासिल कर लिया , एक ही झटके में पूरा विपक्ष कांग्रेस की काइयां और घाग चालबाज़ी के आगे बहुत बौना हो गया.

एक अँग्रेज़ी अख़बार टाइम्स ऑफ इंडिया समूह जिसने समलैंगिकता के समर्थन में मुहिम छेड़ रखी थी उसके तमाम पन्ने न्यायालय के ऐतिहासिक "निर्णय" से भरे पड़े थे कई समिलिंगी समर्थक फिल्म जगत की हस्तियों और बुद्धिजीवियों ने इसे अभूतपूर्व बताया और कहा की अँग्रेज़ों के जाने के साथ ही यह "समलिंगी" विरोधी क़ानून भी जाना चाहिए था.

मज़े की बात यह है की आम तौर पर अँग्रेजिदा तौर तरीकों की प्रशंसा में पन्ने काले करने वाले टाइम्स समूह के पत्रकार आज समलिंगी हितों के लिए अपनी विदेशियों का गुणगान करने की नीति को दिखाने के लिए ही सही तिलांजलि दे रहे हैं. और उपर से समलैंगिकता को जायज़ ठहराते हुए इसे प्राचीन भारत में प्रचलित बताते हैं. कांग्रेस सरकार में मंत्री वीरप्पा मोइली की राय भी इससे बहुत अलग नही है कुछ दिन पहले ही उन्होने यह इशारा किया था की सरकार समलैंगिकता को क़ानूनी मान्यता देगी और देखिए मोइली की मुँह की थूक अभी सूखी भी नही थी की फ़ैसला आ गया ! भाई वाह! मान गये कांग्रेस को जो कहा सो कर दिखाया यूँ भी देश के संसाधानो पर गैर हिंदुओं का हक पहले बता कर कांग्रेस ने अपनी मंशा जाहिर की थी अब तो पूरी ताक़त के साथ हिंदू धर्म की नींव पर इन्होने चोट की है समलैंगिकता को क़ानूनी मान्यता दिला कर. वैसे कहने वाले तो यह भी कहते हैं की कांग्रेस ने जान बुझ कर अदालत में केस कमजोर रखा जिससे की एक तीर से कई पंछी मार सकें . अब शायद ही कांग्रेस सरकार इसको उपरी अदालत में चुनौती दे.

कांग्रेस की चालबाज़ी देखिए :-

१) .एक तरफ यह लफंगे नेता समलैंगिकता को मान्यता दिला कर बढ़ावा दे रहे हैं वहीं एक व्यस्कों की कॉमिक्स 'सविता भाभी' को बॅन किया है।
२).यह खुद पुलों , यूनिवर्सिटीस , स्कूल कॉलेज विभिन्न परियोजनाओं पर अपने गाँधी नेहरू का नाम चस्पा करते हैं वहीं मायावती के मूर्तियाँ बनवाने पर इनको दस्त लगते हैं.
३). अपने आप को कांग्रेसी बड़ा देशभक्त बताते हैं और इन्ही का प्रधानमंत्री बेशर्मी से ऑक्स्फर्ड जा कर ब्रिटिश हुकूमत की तारीफ में कसीदे पढ़ता है.
४). एक आतंकवादी पकड़े जाने पर मंत्री जी पूरी रात सो नही पाते , वहीं मुंबई में आतंकवादी दहशत का खूनी खेल खेलते हैं लोगों को मारते हैं , बम फोड़ते हैं होटल जलाते हैं और प्रधानमंत्री चैन की नींद लेते हैं

५)।हिंदू छात्र छात्राओं को जब विदेशो में प्रताड़ित किया जाता है तो उन्हे अनसुना कर सो जाते हैं.


६).अभी तो बस शुरुआत है , यह लोग आम आदमी की गर्दन मरोड़ के उसका पूरा खून निचोड़ लेंगे पेट्रोल 4 रुपये से बढ़ाया हैं , डाले 80 रुपये किलो हो गयी हैं , हरी सब्जियाँ बाजार में मिलना दुश्वार हुआ है और तमाम जनविरोधी नीतियाँ पूरे जोरों के साथ लागू हो रही हैं ।

७). चुनाव के पहले चिदंबरम हंसते हुए जूता झेल गये और जरनैल सिंह को माफी दे दी , अब खबर आई है की उनकी भी छुट्टी कर दी गयी है। 17 साल से सोए लिब्रेहन आयोग को अभी अभी इन्होने जगाया है .और अपने सभी विरोधियों को फाँसने की इनकी पूरी तय्यारी है।

अब यदि कल को आपका दोस्त या भाई अपनी 'आज़ादी' का कुछ 'हट के' इज़हार करे तो खुशी मनाईए की 'बापू के सपनो का भारत' कितनी तरक्की कर गया और सोनिया जी की जय हो कह कर आप भी 'खुश' हो जाइए!!!

गुरुवार, 11 जून 2009

पेशवा बाजीराव की समाधि ख़तरे में







मित्रों, आपने मिलिटरी हिस्टरी और मध्य युगीन इतिहास का अध्ययन किया होगा तो निश्चित रूप से प्रमुख भारतीय योद्धाओं के बारे में पढ़ा होगा । माना जाता है की अँग्रेज़ जेनरल्स ने पानीपत की आखरी जंग से सीख ले कर नेपोलियन बोनापार्ट को हराया था । मशहूर वॉर सट्रॅटजिस्ट आज भी अमरीकी सैनिकों को पेशवा बाजीराव द्वारा पालखेड में निजाम के खिलाफ लड़े गए युद्ध में मराठा फौज की अपनाई गयी युद्धनीति सिखाते हैं. ब्रिटन के दिवंगत सेनाप्रमुख फील्ड मार्शल विसकाउंट मोंटगोमेरी जिन्होने प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध में जर्मन्स के दाँत खट्टे किए थे वे पेशवा बाजीराव से ख़ासे प्रभावित थे उनकी तारीफ वे अपनी किताब 'ए कन्साइस हिस्टरी ऑफ वॉरफेयर' में इन शब्दों में करते हैं "The Palkhed Campaign of 1727-28 in which Baji Rao I out-generalled Nizam-ul-Mulk , is a masterpiece of strategic mobility" - British Field Marshall Bernard Law Montgomery, The Concise History of Warfare, 132

इतना ही नही मशहूर अंग्रेज इतिहासकार सर रिचर्ड करनाक टेंपल अपनी पुस्तक में लिखते हैं "He died as he lived, in camp under canvas among his men, and he is remembered to this day among the Marathas as the fighting Peshwa and the incarnation of Hindu energy." - English historian Sir Richard Carnac Temple, Sivaji and the rise of the Mahrattas

भारतीय इतिहासकार श्री जादुनाथ सरकार कहते हैं "Bajirao was a heaven born cavalry leader. In the long and distinguished galaxy of Peshwas, Bajirao was unequalled for the daring and originality of his genius and the volume and value of his achievements" - Author Sir Jadunath Sarkar, foreword in V.G. Dighe's,Peshwa Bajirao I and Maratha Expansion

यूँ तो हिन्दुस्तान में वीरों बहादुरों की कमी नही हर सदी में महान हिंदू योद्धा पैदा होते रहें हैं जिन्होने बहुसंख्यक हिंदुओं को विदेशियों के जुल्मों से बचाया है. ऐसे ही एक धर्मवीर हैं पेशवा बाजीराव जिन्होने मुघलिया हुकूमत की चूलें हिला कर रख दीं कृष्णा से रावी तक , अटक से ले कर कटक तक और गुजरात से ले कर बंगाल तक उन्होने हिंदू साम्राज्य का झंडा बुलंद किया . तकरीबन 600-700 साल की गुलामी के बाद पहली दफे दिल्ली के तख्त को अपने काबू में करने वाले बाजीराव पहले हिंदू योद्धा थे. इन्होने अपनी जिंदगी में कुल 41 लड़ाइयाँ लड़ी और हर बार दुश्मन को बुरी तरह कुचला . इन्ही पेशवा बाजीराव की वजह से अफ़ग़ान लुटेरे और एयाशसुल्तान भारतीय अवाम का खून चूस न पाए . यही वो योद्धा थे जो मराठी हो कर भी महाराजा छत्रसाल की एक पुकार पर बुंदेलखंड की रक्षा करने बिना वक्त गँवाएँ हज़ार मील दौड़ पड़े थे और महाराजा छत्रसाल को मुस्लिम सरदार की क़ैद से छुड़ाया था. पेशवा बाजीराव शायद 18 वी शताब्दी के पहले ऐसे योद्धा थे जिन्होने भारत की गंगा जमुना तहज़ीब को अपने बर्ताव और रोशन ख्याली से चरितार्थ किया , उन्होने तमाम विरोध के बावजूद एक मुस्लिम महिला से शादी कर एक मिसाल कायम की. इन्ही के बेटे शमशेर बहादुर ने पानीपत की आखरी जंग में अब्दाली और नजीबुल्लाह के सिपाहियों से लड़ते हुए कुर्बानी दी.

लेकिन हमारी महान भारत सरकार जिसे हिंदू महापुरुषों और सांस्कृतिक विरासत से खास चिढ़ है आज इस दिवंगत योद्धा की समाधि को डुबोने पर आमादा है . पेशवा बाजीराव मध्यप्रदेश में नर्मदा किनारे स्थित रावेरखेड़ी े करीब , 28 एप्रिल सन 1740 में चल बसे थे. बाद में इसी जगह उनके बड़े बेटे नानासाहब पेशवा ने ग्वालियर संस्थान की देख रेख में उनकी समाधि बनवाई थी. गौरतलब है की सन 1925 से हर साल उनकी पुण्यतिथि मनाई जाती है , इस के लिए दुनिया भर के इतिहास प्रेमी यहाँ जमा होते हैं. बाजीराव पेशवा के सम्मान में उनकी पुण्यतिथि पर उनकी वीरता के गीत और क़िस्से सुनाए और गाए जाते हैं. सन 1940 में देश गुलाम होने के बावजूद उनकी 200 वी पुण्यतिथि बड़ी धूम धाम से मनाई गयी और लोगों ने उन्हे याद किया . हालाँकि ऐसा प्रतीत होता है आगे से शायद ही ऐसी शानदार प्रथा का पालन किया जाय क्यूंकी यह स्थान नर्मदा बाँध परियोजना के डूब क्षेत्र में आता है.

इंदिरा गाँधी सागर परियोजना के अंतर्गत आने वाले महेश्वर बाँध मध्यप्रदेश सरकार की म्हत्वकांक्षी परियोजना में से एक है , जो सन 2011 तक पूरा होने की संभावना है, किंतु इस समाधि के इससे पहले ही डूबने की आशंका जताई जा रही है इस समाधि को डूबने से बचाने के लिए नज़दीकी शहर इंदौर के निवासी जी तोड़ कोशिशें कर रहें हैं. प्रशासन ने डूब क्षेत्र में आने वाले घरों,मकानों और दुकानों पर निशान लगा दिए हैं. हालाँकि

समाधि स्थल और पास स्थित धर्मशाला भारतीय पुरातत्व विभाग की देख रेख में है और अब तक प्रशासन इसके डूबने की आशंकाओं पर चुप हैं किंतु इससे कई फुट उपर स्थित मकानों पर ख़तरे का निशान लगाया गया है. प्रशासन के अधिकारी हालाँकि दबी ज़ुबान में यह स्वीकार करते हैं की पानी समाधि की तीन फुट ऊँचाई तक ही आएगा , और पुरातत्व विभाग भी इस बात पर राज़ी हैं लेकिन यह हमे समझना होगा की बाढ़ आने की दशा में समाधि की क्या हालत होगी!इस सूरत में समाधि को स्थानांतरित करने का एकमात्र रास्ता बचता है किंतु पुरातत्व विभाग का यह मानना है की तकरीबन 250 वर्ष पुरानी इमारत होने की वजह से समाधि को हिलाना ठीक नही , पुरातत्व विभाग ने कॉंक्रीट की रीटेनिंग वॉल बनाने का सुझाव दिया है , किंतु ऐसा होने पर समाधि अपने मूलरुप में नही रहेगी. नर्मदा नदी का तेज बहाव इस स्थान को तकरीबन पिछले शताब्दी से काट रहा है , इस दशा में कॉंक्रीट की दीवार इस प्राचीन इमारत कितना बचा पाएगी इसमे शक है. स्थानीय लोग अभी भी आशावान हैं की इस समाधि को स्थानांतरित किया जाएगा. देखना यह है की सरकार जनभावनाओं का कितना सम्मान करती है.

बुधवार, 6 मई 2009

अलाउद्दिन खिलजी और मलिक काफूर का "दोस्ताना"

मित्रों आपने इतिहास में दिल्ली सलतनत के सुल्तान अल्लाउद्दीन खिलजी के बारे में पढ़ा होगा ही , यह पहला विदेशी सल्तनत का नुमाइंदा था जिसने दक्षिण भारत पर अपनी पकड़ अपने सेना नायक मलिक काफूर के द्वारा जमाई .



मलिक काफूर सुल्तान अलौद्दिन खिलजी का विश्वासपात्र सेनापति था जिसे खिलजी ने खंबात की लड़ाई के बाद 1000 दिनार में खरीदा था . मलिक काफूर मूल रूप से हिंदू परिवार में पैदा हुआ एक किन्नर था , जिसको लोक लाज के डर से उसके परिवार वालों ने उसे बेसहारा छोड़ दिया . यही उनकी सबसे बड़ी ग़लती साबित हुई क्योकि आगे जा कर यही मलिक काफूर खिलजी की पाक फौज में शामिल हुआ और हिंदुओं पर तमाम ज़्यादतियाँ कीं .

अलाउद्दिन खिलजी बेशक एक महान योद्धा था लेकिन वह व्यभिचारी था , यह कहना उचित होगा की वह भारतीय इतिहास का पहला समलिंगी था . जी हाँ यदि यूनिवर्सिटी ऑफ मोंटनना की प्रोफेसर वनिता रुथ की माने तो यह बात शत

प्रतिशत सही है , जिसका उल्लेख उन्होने अपनी पुस्तक सेम सेक्स लव इन इंडिया : आ लिटररी हिस्टरी में किया है . किताब में यह भी लिखा है की सुल्तान खिलजी मलिक काफूर के सौंदर्य पर फिदा हो गया था और उसे खंबात की लड़ाई के पश्चात बतौर गुलाम खरीदा था . यह पता चलता है की अलाउद्दिन खिलजी के मलिक काफूर के साथ समलिंगी रिश्ते थे.

अलाउद्दिन खिलजी , मलिक काफूर पर इतना भरोसा करता था की उसने उसे अपनी सेना का प्रधान सेनानायक बना दिया था . कालांतर में मलिक काफूर ने इस्लाम क़ुबूल किया और दिल्ली सल्तनत के प्रति वफ़ादारी की कसमें खाईं .

इसी मलिक काफूर ने बाद में दक्षिण भारत के हिंदू राज्यों पर चढ़ाई करी और हज़ारों लाखों गैर मुस्लिमों को मौत के घाट उतारा . वारंगल , देवगिरी और पांड्या राज्यों को देखते ही देखते मलिक काफूर और उसकी मज़हबी सेना ने धूल चटा दी ,

मलिक काफूर ने बाद में रामेश्वरम में मस्जिद बनवाई . वारंगल के काकतिया राजा को काफूर के साथ संधि करनी पड़ी और इसी के तहत अकूत धन संपदा से अलग मलिक काफूर को कोहिनूर हीरा बतौर उपहार प्राप्त हुआ जिसे उसने अपने मलिक और समलिंगी साथी सुल्तान अलाउद्दिन खिलजी को भिजवाया . खिलजी उसकी कामयाबी पर फूला न समाया और उसको सेना में और अधिक अधिकार बहाल किए.

मलिक कॉयार के कामयाबी का राज़ यही था की जो भी अमूल्य वास्तु उसे युद्धों , चढ़ाई और संधियों में प्राप्त होतीं वह तुरंत अपने सुल्तान के कदमों में उसे पेश करता , इसलिए वह खिलजी का विश्वासपात्र था. लेकिन इसी खिलजी का जब मलिक काफूर से मोह भंग हुआ तो उसने उसे जान से मरवा दिया , यह कहानी भी बड़ी रोचक है आइए देखें.

सन 1294 के करीब देवगीरि राज्य अलाउद्दिन खिलजी के सीधे नियंत्रण में आ गया संधि के तहत देवगीरि के यादव शासक हर साल दिल्ली सल्तनत को एक तयशुदा रकम भिजवाते थे , किन्ही कारणों से यह रकम बकाया होती रही , और 1307 में अलाउद्दिन खिलजी ने अपने विश्वास पात्र मलिक काफूर को इसे वसूलने देवगिरी भेजा , मलिक काफूर ने देवगीरि पर चढ़ाई की और धन दौलत लूट कर दिल्ली भिजवाई साथ ही साथ , देवगीरि के शासक रामदेव की दो सुंदर बेटियों को

उठवा कर दिल्ली में अलाउद्दिन खिलजी के हरम में भिजवा दिया. जब खिलजी ने इन राजकुमारियों के साथ सोने की इच्छा जताई , तो बड़ी राजकुमारी ने युक्ति लड़ते हुए मलिक काफूर का नाम यह कहते हुए फँसा दिया की हमे बादशाह की खिदमत में पेश करने से पहले ही मलिक काफूर हमारे साथ सब कुछ कर चुका है. अलाउद्दिन खिलजी एक वासनायुक्त भेड़िया था जिसने अपनी गंदी नज़र चित्तोड़ की रानी पद्‍मिनी पर भी डाली थी. राजकुमारियों की बात सुनकर अलाउद्दिन खिलजी गुस्से से पागल हो गया , उसने उसी वक्त मलिक काफूर की गिरफ्तारी का हुक्म जारी कराया . मान्यता है की उसने काफूर को गाय की चमड़ी में बाँध कर दिल्ली लाने का आदेश दिया , जब मलिक काफूर को दिल्ली लाया गया उसकी घुटन से मौत हो चुकी थी. यह देख कर राजकुमारी खिलजी से बोली की ऐसा आदेश देने के पहले उसे पूरी जाँचपड़ताल करनी चाहिए थी. गुस्से में मूर्ख खिलजी यह भी भूल गया की मलिक काफूर एक किन्नर है . अपनी बेवकूफी से आगबबूला खिलजी ने दोनो राजकुमारियों के हाथ पैर बाँध कर उन्हे ऊँची पहाड़ी से फिंकवा दिया.
सन 1316 में मलिक काफूर की मौत से दुखी और निराश अलाउद्दिन खिलजी ड्रोपसी [एडीमा] से चल बसा , हालाँकि यह माना जाता है की उसकी हत्या उसके एक सेनापति मलिक नायाब ने करवाई

शनिवार, 2 मई 2009

देश में धार्मिक आज़ादी और अमरीकी चालबाज़ी

यह खबर है की दुनिया का स्वयंघोषित थानेदार 'अंकल सॅम' अमेरिका भारत में अपनी धार्मिक स्वतंत्रता के मामलों से जुड़ी हुई समिति भेज रहा है. गौरतलब है की ऐसा हालिया घटित उड़ीसा में ईसाई विरोधी हिंसा के आरोप में भारत सरकार द्वारा दिए गये 'जवाब' की जाँच पड़ताल के लिए किया जा रहा है. इस रिपोर्ट के पहले अमरीका के अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता से जुड़े आयोग ने शुक्रवार को जारी अपनी रिपोर्ट में कहा है की भारत में धार्मिक स्वतंत्रता के हनन के मामले विगत वर्षों में बढ़ते जा रहे हैं और बहुसंख्यक हिंदू जनता अल्पसंख्यक मुस्लिम और ईसाई जनता के प्रति बैर भाव रखती है. रिपोर्ट में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का भी उल्लेख किया गया है जो अमरेकी सरकार द्वारा प्रतिबंधित एक मात्र ऐसे भारतीय व्यक्ति हैं जिन्हे अमरीका आने से रोका गया है.

अमरीका बताए की क्या खुद उनके देश में धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन नही हुआ है? उल्लंघन भी ऐसा की एक प्रतिष्ठित हिंदू व्यक्ति श्री 'राजन ज़ेड' के अमरीकी सेनेट में हिंदू प्रार्थना करने पर पग्लाई क्रसेडर्स की भीड़ ने उनके साथ गली गलौज और धक्का मुक्की की. यह सब होता है अमरेकी सेनेट में जहाँ अमरीकी जनता द्वारा चुने गये प्रतिनिधि बैठते हैं. इतनी बड़ी बात के होने के बावजूद किसी सेनेटर ने 'खेद' व्यक्त नही किया और सुरक्षाकर्मी क्रुसेडर्स को भर निकालने में ख़ासी मशक्कत करते नज़र आए.

हैरत होती है यह बात जानकार की अमरीका जैसे मुल्क के भारत में आख़िर क्या हित हैं? विगत वर्षों की हिंसा में आख़िर कितने अमरीकी पाकिस्तान अफ़ग़ानिस्तान में मारे गये हैं? क्यूँ नही अमरीका इसकी जाँच के लिए टीम भेजता ? क्या इसलिए की अमरेकी सैनिक और नागरिक आज इराक़ , आफ्गानिस्तान या पाकिस्तान में जाने से डरते हैं? यहाँ भारत में गोरी चमड़ी वाले फिरंगों के प्रति मानसिक गुलामों में खास आकर्षण हैं इसलिए इन अमरीकियों को यह बात अची तरह मालूम है की यहाँ इनकी अच्छी आवभगत होगी , और अगर यह लोग 3-4 नसीहत देंगे तो हमारे सेक्युलर स्लम डॉग्स इसे माई बाप का आदेश मानकर इस पर अमल करेंगे. शायद मगसेसे पुरस्कार वाले या नोबेल विश्व शांति पुरस्कार वाले इनके किए गये "कामों" के लिए 2-4 पुरस्कार भी दे दें.

यह जान कर गुस्सा आता है की आख़िर भारत सरकार , अमरीका को जवाबदेह क्यूँ है? क्या 10 जनपथ या राष्ट्रपति भवन ने अमरीकी राजदूत को तलब कर भारतीय छात्रों और भारतवंशियों के खिलाफ अमरीका में हुई हिंसा के प्रति विरोष जताया ? विरोध तो दूर हमारे महान विद्वान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह साहब तो मौका मिलने पर ओबामा के आगे नतमस्तक होने का मौका नही छोड़ेंगे . धिक्कार है ऐसी राज्य व्यवस्था पर जो विदेशीयों के तलवे चाटने में मशगूल हो.

अमरीका में मौजूद भारतीय छात्रों से पूछे की वे अमरीका में कितना सुरक्षित महसूस करते हैं , शाम ढालने के बाद जगह जगह रंगे पुते हुए नशेड़ी मवालियों का जमावड़ा लग जाता है और किसी भी एशियाई व्यक्ति को देख कर वे टूट पड़ते हैं. यह नशेड़ी मवाली इतने ख़तरनाक होते हैं की पोलीस की पेट्रोल पार्टी भी इनसे भिड़ना उचित नही समझती.

कॉलेज कॅंपस में भी भारतीय सुरक्षित नही हैं हालिया घटनाओं में भारतीय विद्यार्थियों को जिस तरह निशाना बनाया गया है उसकी वजह से भारतीय विद्यार्थियों की अमरीका में आवक घाटी है. आज भारतीय छात्र अमरीका जाने के बजाय ऑस्ट्रेलिया जाना पसंद करते हैं , हालाँकि वहाँ भी हालात अच्छे नही हैं.

इस सब को देखते हुए क्या कोई भारत सरकार अपनी जाँच टीम इन मुल्कों में भेज कर पता कराएगी की विगत वर्षों में भारतीयों के खिलाफ हमले क्यों बढ़ रहे हैं ? और खुद अमरीकन सरकार इस सब से निपटने के लिए क्या कदम उठा रही है? कम से कम मुझे इस बात की उम्मीद बिल्कुल नही है की ऐसा कुछ होगा, क्यूंकी भारत सरकार का ट्रॅक रेकॉर्ड यही कहता है की वे विदेशो में रहने वाले भारतीयों के हितों के प्रति उदासीन हैं. विदेशों में स्थित भारतीय उच्चायोग में मंत्रियों के रिश्तेदार तैनात हैं या कुछ ऐसे लोग जो फोकट में मज़े कर रहे हैं. अनिवासी भारतीयों चाहे मरे या जिएं इन्हे इस से कुछ फराक नही पड़ता.

गुरुवार, 23 अप्रैल 2009

परिसीमन और दलों की शहरी मतदाताओ के प्रति उदासीनता

राजनैतिक पार्टियों को इस बात का अंदाज़ा नही है की इन लोकसभा चुनावों में उनके सिर पर कितना बड़ा ख़तरा मंडरा रहा है. यह सर्वविदित है की तमाम राजनैतिक पार्टियों का जनाधार परिसीमन की गाज गिरने से विभिन्न चुनावी क्षेत्रों में बंट गया है फिर भी राजनेता इससे कोई सीख न लेते हुए अपने पुराने ढर्रे पर ही चुनावी वादे कर रहे हैं और शहरी मतदाताओं के हितों की अनदेखी कर रहे हैं. निर्वाचन आयोग के अनुसार देश के प्रमुख निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन के कारण लोकसभा की 543 सीटों मे से 125 शहरी क्षेत्रों में आ गयीं हैं , इन शहरी क्षेत्रों में भी करीब 10-12 करोड़ ऐसे लोग हैं जो जीवन में पहली बार मत देंगे. ऐसे में इन नाव मतदाताओं के लिए कल्याणकारी योजना या वादे किस पार्टी ने किए हैं? आइए दश की कुछ प्रमुख पार्टियों के चुनावी घोषणा पत्र में नज़र डालते हैं

सपा : यह पार्टी पहले से ही अपने घोषणा पत्र द्वारा मज़ाक का पात्र बन चुकी है. इन्होने कहा है की कंप्यूटर का गैर ज़रूरी इस्तेमाल बंद किया जाएगा और हार्वेस्टोर सहित तमाम कृषि यंत्रो के बढ़ते प्रचलन पर रोक लगाई जाएगी और अँग्रेज़ी माध्यम के विद्यालयों को बंद किया जाएगा. जाहिर है इस पार्टी ने शहरी मतदाताओं की अनदेखी की है , न कारों में छूट की बात की है न परिवहन सेवा , या उद्योग लगाने के बारे में , और तो और जहाँ देश का तेज़ी से औद्योगिकी कारण और शहरी कारण हो रहा है वहीं यह पार्टी देश को लालटेन युग में पहुचा रही है.

कॉंग्रेस : अपने लोकप्रिय प्रधान मंत्री की बदौलत यह पार्टी अति उत्साहित है किंतु इन्होने भी शहरी मतदाता की अनदेखी की है पिछले घोषणा पत्र में इन्होने 1 करोड़ नौकरियाँ देने का वादा किया था किंतु वैश्विक मंदी के कारण 2 करोड़ लोग अपनी नौकरियाँ गँवा बैठे , 1 करोड़ में से 1 लाख को भी नौकरियाँ नही मिल पाँयी . हाल यह है की कॉंग्रेस के कई दिग्गज नेता परिसीमन के दर से अपना चुनावी क्षेत्र बदल दिए हैं. वे जानते हैं की शहरी मतदाता को आसानी से लुभाया नही जा सकता , जागो रे जैसे अभियान की बदौलत आज शहरी मतदाता भी बजाय घर बैठने के वोट डालने लाईनओ में लगता है.


भाजपा : इस पार्टी ने ज़रूर शहरी मतदाताओं को लुभाने के प्रयास किए हैं जैसे की 3 लाख रुपए सालाना आय वालों को आयकर में छूट देना , हालाँकि यह शहरी मतदाताओं के लिए नाकाफ़ी है. पार्टी का जनाधार शहरी मतदाताओं में ही है , किंतु विगत वर्षों में मतदाताओं की भाजपा के प्रति उम्मीद बढ़ गयी है जिसे पूरा करना इनके लिए टेढ़ी खीर है. आलम यह है की असली चुनावी मुद्दों को छोड़ नेता गान एक दूसरे पर छींटा काशी करते नज़र आ रहे हैं जो लोक तंत्र के लिए घातक है. किसानो को कर्ज़ माफी , और नये कर्ज़ 4% ब्याज पर देना तथा लाडली लक्ष्मी योजना लोगों दवारा पसंद की गयी हैं देखना यह है की इसका कितना फ़ायदा पार्टी को चुनावों में होता है.

बसपा : इस पार्टी का घोषणा पत्र दलितों और खास तौर से ग्रामीण क्षेत्र की जनता पर केंद्रित है . देखना है की अंबेडकर ग्रामीण विकास योजना मतदाताओं के बीच कितनी खरी उतरती है.

इन सभी पार्टियों के घोषणा पत्र से यह साफ है की इन्होने बड़े पैमानो पर शहरी जनता के हितों की अनदेखी की है जब की शहरी जनता ही पासा पलटने की क्षमता इस बार रखती है.
कल अपना नाम मतदाता सूची में देखते हुए मुझे यह देख बड़ी निराशा हुई की नये मतदाताओं के नाम , राजनैतिक पार्टियों के पास मौजूद मतदाता सूची से नदारद हैं , ऐसे सैकड़ो लोगों से मिला जो अपना नाम सूची में न देख कर झल्ला कर चुनाव आयोग को कोस कर चले गये! उनमे से कुछ ने हिम्मत कर के मतदान केंद्र गये होते तो देखते की वहाँ चुनावी ड्यूटी पर तैनात कर्मचारियों के पास नयी मतदाता सूची होती है. वह तो भला हो उस घड़ी का जो में हिमत कर के मतदान केंद्र पहुँचा और वहाँ ड्यूटी पर तैनात कर्मचारी को मेरा नाम मतदाता सूची में मिल गया , फिर क्या था पहचान पत्र दिखा कर मैं अपना बहुमूल्य मत , अपने नेता को डाल सका.

शनिवार, 17 जनवरी 2009

मुन्ना भाई समाजवादी

ख़बर है की नवाबों के शहर लखनऊ में बॉलिवुड ऐक्टर संजय दत्त चुनाव लड़ने की जुगत में हैं . मुन्नाभाई इस बार नेतागीरी करने वाले हैं । शनिवार
शाम संजय दत्त लखनऊ पहुंचे, तो सपाई कार्यकर्ताओं ने उनका जोरदार स्वागत किया। यह सपा का दिमागी दिवालियापन ही कहा जाएगा की एक ऐसे व्यक्ति को वे उम्मीदवारी सौंपते हैं जिस पर देश द्रोह और बिना सरकारी अनुमति के हथियार रखने के आरोप साबित हो चुके हैं। क्या उत्तर प्रदेश की जनता से उन्हें एक भी साफ छवि वाला व्यक्ति नही मिला जिसे वो लखनऊ से चुनाव लड़ा सकें? वास्तव में सपाई नेताओं से अच्छाई की उम्मीद करना बेकार है , विशेष रूप से तब जब उनके प्रमुख नेता श्री अमर सिंह बजाये काम करने के फालतू बयानबाजी करते हैं । कहना न होगा ये वही अमर सिंह हैं जिनके कारण उनके मित्र परिवार में झगडे होने लगे हैं । पहले बच्चन बंधुओं का झगडा फ़िर अम्बानी बंधुओं का और अब दत्त परिवार में भी झगडा!! यूँ भी फिल्मी कलाकार राजनीती में सफल नही होते हालाँकि इसके कुछ अपवाद हैं मसलन सुनील दत्त और कुछ दक्षिण भारतीय कलाकार किंतु मुम्बैया कलाकार ज्यादातर असफल ही होते हैं जैसे के गोविंदा धर्मेन्द्र और अमिताभ बच्चन। देखना ये है की मुन्ना भाई अपने नए रोल में कितने सफल होते हैं।
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