दोस्तों अब क्योंकि उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम आ चुके हैं कई पार्टियों का भ्रम टूट गया है. अर्श से फर्श तक आने की कहानी तमाम पार्टियों में लगभग एक सी है.
एक तरफ तो कांग्रेस पार्टी की रही सही इज़्ज़त इन चुनावों में नीलम हो गयी वहीं दूसरी ओर भाजपा भी अयोध्या में औंधे मुँह ऐसे गिर पड़ी कि यह मुश्किल लगता है आगामी लोकसभा चुनावों में यह पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर २ अंकों में सीटें हासिल कर पाएगी अथवा नहीं .
हालाँकि मुल्लायम राज के वापस लौटने का मुझे इतना दुख नहीं जितना कि कांग्रेस पार्टी की उत्तर प्रदेश में फ़ज़ीहत होने पर. खबर है की सोनिया जी के संसदीय क्षेत्र रायबरेली की सभी सीटों पर कांग्रेस को पराजय झेलनी पड़ी है. कांग्रेस का इतना बुरा हाल शायद ही पहले कभी हुआ होगा.
इन चुनावों से यह स्पष्ट है कि आने वाले १० सालों में उत्तरप्रदेश में राष्ट्रीय पार्टियों के लिए कोई संभावना मौजूद नही है.
शुरुआती विश्लेषण से ऐसा मालूम पड़ता है कि मुसलमानों का एक तरफ़ा वोट सपा के खाते में गया है जबकि शहरी भागों में शिक्षित , मध्य वर्ग के वोटर जिन्होने पिछली बार बसपा का समर्थन किया वे कांग्रेस , भाजपा
और सपा में बँट गये .
आइए हम उन कारणों पर नज़र डालते हैं कि ऐसा क्यों हुआ :-
१). मायाजाल का टूटना :- बीते पाँच सालों में मायावती सरकार द्वारा ऐसा कोई उल्लेखनीय काम नहीं किया गया जिसके चलते मतदाता उन्हें दोबारा मौका देते .यूँ भी कोई लोकहित में काम करने के बजाए वह अपने और हाथियों के बुत लगाती रहीं और अपने विरोधियों को चुन चुन कर परेशान किया .
२). कांग्रेस का सिरदर्द :- पिछले चुनावों में कांग्रेस के बमुश्किल २२ सीटें थी जो इन चुनावों में बढ़ कर तकरीबन २८ हैं . मीडिया भले ही इस प्रदर्शन को कम आँकें लेकिन सच्चाई तो यह है की इन छ: सीटों का इन प्रतिकूल हालात में बढ़ना निकटतम प्रतिद्वंदी भाजपा के लिए ख़तरे की घंटी है. भले ही राहुल फॅक्टर फुस्स हो गया लेकिन कुछ सीटें तो कांग्रेसी उम्मीदवार महज कुछ हज़ार वोटों से हारें है.
हालाँकि कांग्रेस ने सत्तारूढ़ बसपा को अधिक नुकसान पंहुचाया इसमें कोई दो राय नहीं. खुद मायावती ने भी इस बात को कबूला है. कांग्रेस ने मुसलमानों को अपनी तरफ खींचने के लिए आरक्षण के सब्ज़ बाग दिखाए जिसको ले कर भाजपा ने कड़ा विरोध किया . यक़ीनन चुनावों से पहले कांग्रेस और भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टियाँ मजबूत होती दिखाई दी . इसलिए बसपा के डूबते जहाज़ से चूहे भाग कर इन पार्टियों मिलने की सोचने लगे. उधर जब बाबू सिंह कुशवाह भाजपा में शामिल हुए तो मुसलमानों को यकीन हो गया कि भाजपा की स्थिति मजबूत है इसलिए वह बस-ट्रक भर भर कर मतदान केंद्र पंहुचे और साइकल के आगे बटन दबाया.
३). हिंदू मध्यम वर्ग का बसपा से मोहभंग :- बीते चुनावों में मायावती की सोशल इंजिनियरिंग भले ही कामयाब रही इन चुनावों में हिंदू मध्य वर्ग और उँची जाति के लोग बसपा से छिटक गये . चुनावों से पहले भाजपा -कांग्रेस की मजबूत होती स्थिति को देख उन्होने इन पार्टियों को चुना . यूँ भी बसपा इनकी पहली पसंद न थी.
४). पिछड़ी जाति का वोट बटना :- इन चुनावों में मध्य प्रदेश से 'आयातित' और स्टार- कॅंपेनर साध्वी उमा भारती को भाजपा के टिकट पर चरखारी में उतार कर नितिन गडकरी ने एक तीर से कई निशाने किए , पहला तो उमाजी के पुराने प्रतिद्वंदी 'श्रीमान बंटाधार' दिग्विजय सिंह को परेशान कर दिया , दूसरा राहुल गाँधी की बुंदेलखंडी नौटंकी का प्रभाव ज़ीरों किया और बसपा के ट्रेडिशनल वोटर्स को खींचना.
सपा की जीत पर पूरा मीडिया पगलाया हुआ सा है . कुछ समय पहले तक राहुल गाँधी की तारीफों में क़सीदे पढ़ने वाले लिक्खाड़ और पत्रकार अब अखिलेश की जय - जयकार कर रहे हैं. अख़बारों के संपादकीय और आर्टिकल्स में अखिलेश की तारीफों के पुल बाँधे जा रहे हैं. मानों उत्तर प्रदेश में इससे अभूतपूर्व कभी कोई घटना हुई ही नही.
पाँच साल पहले यही मीडियावाले मायावती की जीत को लेकर बड़े खुश थे लेकिन जल्दी ही पूरा मीडिया उनके पीछे पड़ गया . यही हाल अखिलेश और उनकी पार्टी वालों का होगा. अखिलेश को मुख्यमंत्री बनवा कर मुल्लायम इस भ्रम में हैं कि वह तीसरा मोर्चा बना कर प्रधानमंत्री बनेंगे लेकिन जनाब , इस बात के लिए अभी अभी दिल्ली बहुत दूर अस्त !!!
रविवार, 11 मार्च 2012
उत्तर प्रदेश के नतीजे :पार्टियाँ अर्श से फर्श पर
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